Friday, October 23, 2009

मुझमें से मेरा 'मैं' ले लो



कितना अच्छा लगता था
जब सूरज रोज निकलता था
दिन भर मेरे संग चलता था
और शाम को थक कर ढलता था
अब धरती घूमे जाती है तो
मेरा सिर चकराता है

सुंदर सा चंदा होता था
नन्हे से तारे होते थे
वो बचपन के ताजे तारे
अब हिमयुग से भी पुराने हैं
सारे के सारे झूठे हैं
सारा आकाश छलावा है

आज की इस दौलत पे क्यों
बचपन के सिक्के भारी हैं
जिनके बदले बाज़ार से तब
आँगन भर खुशियाँ आती थीं
उधड़ी सी फटी सी जेबों में
कुछ रहती कुछ गिर जाती थी

रस्ते में खुशी के कुछ दाने
वो कौन बिखेर के जाता था
हम जब चुनने को झुकते थे
वो हंसकर हमें डराता था
इन लम्बी चौड़ी सड़कों में
वो रस्ता आज कहाँ खोजूं

मुझको जो मिला है सब ले लो
मुझमें से मेरा 'मैं' ले लो
मेरा चंदा मेरी धरती
तारे आकाश मुझे दे दो
वो बचपन का रस्ता दे दो
खुशियों के कुछ दाने दे दो

No comments:

Post a Comment