Friday, June 19, 2009
कुछ शहद से भी ज्यादा मीठे होते हैं तो कुछ नीम से भी ज्यादा कडुवे। कुछ अमृत समान मुर्दे को भी जिला देने वाले, कुछ ऐसे जहरीले कि जिसे लगे पानी न मांगे। कुछ का घाव जिंदगी भर नहीं भरता। कुछ सार्थक होते हैं .कुछ निरर्थक। वैसे निरर्थक कुछ नहीं होता। जी हाँ मैं शब्दों की ही बात कर रहा हूँ और मैं भी उन ही में से एक हूँ। आपकी रोजमर्रा की इस्तेमाल की चीज। हो सकता है मैं आदि शब्द ॐ होऊं या बिग बैंग जिसे वैज्ञानिक खोज रहे हैं। बहरहाल सुरक्षा कारणों से अपना नाम गुप्त रख रहा हूँ।
मैं अपने जैसे आम शब्दों की जिंदगी में खुश था। लोग मेरा धड़ल्ले से इस्तेमाल कर रहे थे। अलग अलग तरीके से। कुछ लोग मुझे कान ही नहीं देते। कुछ एक कान से सुन के दूसरे कान से निकाल देते। कुछ दोनों कानों से सुनते मुंह से निकाल देते। कुछ लोग जब मुझे पेट में रख लेते तो मुझे थोडी तकलीफ होती पर देर सबेर उगल तो वो भी देते ही अब तक मुझे कोई भी पचा नहीं पाया क्योंकि मैं भी आत्मा की ही तरह अजर अमर हूँ।
पिछले दिनों मेरे साथ एक अजीब सा हादसा हो गया। एक सज्जन मुझे अपने पेट में रखकर ले गए, मैं अन्दर ही अन्दर घुटता रहा। दो तीन दिन के बाद अपने एक प्रिय मित्र जो एक शब्द शास्त्री हैं, के सामने उगल दिया। बोले, " मित्र इसमें मुझे काफी संभावना नजर आती है। इसका कुछ करो"। उन शास्त्रीजी के सामने से मैं कई बार गुजर चुका था उन्होंने कभी मुझे इस नजर से नहीं देखा था। मुझे यकीन था कि वो मुझे लौटा देंगे। पर ये क्या उन्होंने तो तुंरत मुझे अपने ऑपरेशन थियेटर में डाल दिया। ये मेरी समझ में नहीं आता कि लोग अपने प्रियों की बात क्यों नहीं टाल पाते? रामायण में अपनी प्रिय पत्नी के कहने पर राम हिरन के शिकार पर निकल पड़ते हैं हालाँकि कहीं भी उनके मांसाहारी होने का जिक्र नहीं आता। सलमान ने किसके उकसाने पर हिरन का शिकार किया था सबको मालूम है।
शास्त्री जी ने सिगरेट सुलगाई और मेरा मुआइना करने लगे। धुएँ के छल्ले बनाते बनाते अचानक आर्कमडीज की तरह चिल्लाए, "मिल गई मिल गई, वह धातु मिल गई जिससे यह बना है"। ये कौन सी बड़ी बात हो गई शब्द तो धातु से ही बनते है। इसीलिए तो वाद्य यंत्रों के तार धातुओं के बने होते है ताकि अच्छी अच्छी धुनें निकलें। घंटे की टनटन हो या घंटी की टिनटिन या घुंघुरू, पायल की छम छम सब धातुओं का ही कमाल है। लकड़ी की ठक ठक भी कोई शब्द है भला? अब उन्होंने मेरा जन्म समय निकाला जो आर्यों के समय का निकला । हाँ जन्म स्थान अस्पष्ट था ये भारत, मध्य एशिया, उत्तरी ध्रुव या कोई दूसरा ग्रह भी हो सकता था। उसके बाद मेरा डी एन ए निकाल कर कई भाषाओँ के शब्दों से मिलाया, मैं एक काली गर्दन वाला हिन्दुस्तानी शब्द और मेरा डी एन ए एक गोरे चिट्टे अंग्रेजी , एक मोटे ताजे रूशी , एक काले कलूटे अफ्रीकी और अरबी फारसी के कई शब्दों से मिला। न शक्ल मिलती है न सूरत पर विज्ञानं का जमाना है। डी एन ए रिपोर्ट झुठलाई तो नहीं जा सकती। फ़िर ये भी पता चला कि मैं मैं संस्कृत में पैदा हो कर फ़िर अरबी फारसी में घूम घाम कर मुग़लों के साथ वापस हिंदुस्तान पहुँचा था।
शास्त्री जी ने मुझपर एक डेढ़ पेज का लेख लिख डाला। अपने उस मित्र का भी जिक्र उन्होंने किया। ये उनकी ही लेखनी का कमाल था कि हम तीनों की जबरदस्त तारीफ हुई। देखते ही देखते मैं बड़े बड़े लोगों की जुबान में चढ़ गया था. इस अनायास मिली शोहरत से मैं काफी खुश था. मैं अब आम नहीं एक खास शब्द बन गया था।
शोहरत अनायास मिले या प्रयत्न से उसकी कीमत तो चुकानी ही पड़ती है। मुझे भी चुकानी पड़ी। मेरे साथियों ने मुझे स्वीकार नहीं किया। मैं उस जंगली जानवर की तरह था जो मनुष्यों के हाथ से जैसे तैसे भागकर जंगल चला तो गया पर अपने ही साथियों के द्वारा प्रताडित किया गया। आम लोगों ने मेरा इस्तेमाल बंद कर दिया और खास लोगों के पास समय ही कहाँ होता है. आठ आठ आंसू रोता मैं अपने वो दिन याद करता हूँ।
मैं अपने जैसे आम शब्दों की जिंदगी में खुश था। लोग मेरा धड़ल्ले से इस्तेमाल कर रहे थे। अलग अलग तरीके से। कुछ लोग मुझे कान ही नहीं देते। कुछ एक कान से सुन के दूसरे कान से निकाल देते। कुछ दोनों कानों से सुनते मुंह से निकाल देते। कुछ लोग जब मुझे पेट में रख लेते तो मुझे थोडी तकलीफ होती पर देर सबेर उगल तो वो भी देते ही अब तक मुझे कोई भी पचा नहीं पाया क्योंकि मैं भी आत्मा की ही तरह अजर अमर हूँ।
पिछले दिनों मेरे साथ एक अजीब सा हादसा हो गया। एक सज्जन मुझे अपने पेट में रखकर ले गए, मैं अन्दर ही अन्दर घुटता रहा। दो तीन दिन के बाद अपने एक प्रिय मित्र जो एक शब्द शास्त्री हैं, के सामने उगल दिया। बोले, " मित्र इसमें मुझे काफी संभावना नजर आती है। इसका कुछ करो"। उन शास्त्रीजी के सामने से मैं कई बार गुजर चुका था उन्होंने कभी मुझे इस नजर से नहीं देखा था। मुझे यकीन था कि वो मुझे लौटा देंगे। पर ये क्या उन्होंने तो तुंरत मुझे अपने ऑपरेशन थियेटर में डाल दिया। ये मेरी समझ में नहीं आता कि लोग अपने प्रियों की बात क्यों नहीं टाल पाते? रामायण में अपनी प्रिय पत्नी के कहने पर राम हिरन के शिकार पर निकल पड़ते हैं हालाँकि कहीं भी उनके मांसाहारी होने का जिक्र नहीं आता। सलमान ने किसके उकसाने पर हिरन का शिकार किया था सबको मालूम है।
शास्त्री जी ने सिगरेट सुलगाई और मेरा मुआइना करने लगे। धुएँ के छल्ले बनाते बनाते अचानक आर्कमडीज की तरह चिल्लाए, "मिल गई मिल गई, वह धातु मिल गई जिससे यह बना है"। ये कौन सी बड़ी बात हो गई शब्द तो धातु से ही बनते है। इसीलिए तो वाद्य यंत्रों के तार धातुओं के बने होते है ताकि अच्छी अच्छी धुनें निकलें। घंटे की टनटन हो या घंटी की टिनटिन या घुंघुरू, पायल की छम छम सब धातुओं का ही कमाल है। लकड़ी की ठक ठक भी कोई शब्द है भला? अब उन्होंने मेरा जन्म समय निकाला जो आर्यों के समय का निकला । हाँ जन्म स्थान अस्पष्ट था ये भारत, मध्य एशिया, उत्तरी ध्रुव या कोई दूसरा ग्रह भी हो सकता था। उसके बाद मेरा डी एन ए निकाल कर कई भाषाओँ के शब्दों से मिलाया, मैं एक काली गर्दन वाला हिन्दुस्तानी शब्द और मेरा डी एन ए एक गोरे चिट्टे अंग्रेजी , एक मोटे ताजे रूशी , एक काले कलूटे अफ्रीकी और अरबी फारसी के कई शब्दों से मिला। न शक्ल मिलती है न सूरत पर विज्ञानं का जमाना है। डी एन ए रिपोर्ट झुठलाई तो नहीं जा सकती। फ़िर ये भी पता चला कि मैं मैं संस्कृत में पैदा हो कर फ़िर अरबी फारसी में घूम घाम कर मुग़लों के साथ वापस हिंदुस्तान पहुँचा था।
शास्त्री जी ने मुझपर एक डेढ़ पेज का लेख लिख डाला। अपने उस मित्र का भी जिक्र उन्होंने किया। ये उनकी ही लेखनी का कमाल था कि हम तीनों की जबरदस्त तारीफ हुई। देखते ही देखते मैं बड़े बड़े लोगों की जुबान में चढ़ गया था. इस अनायास मिली शोहरत से मैं काफी खुश था. मैं अब आम नहीं एक खास शब्द बन गया था।
शोहरत अनायास मिले या प्रयत्न से उसकी कीमत तो चुकानी ही पड़ती है। मुझे भी चुकानी पड़ी। मेरे साथियों ने मुझे स्वीकार नहीं किया। मैं उस जंगली जानवर की तरह था जो मनुष्यों के हाथ से जैसे तैसे भागकर जंगल चला तो गया पर अपने ही साथियों के द्वारा प्रताडित किया गया। आम लोगों ने मेरा इस्तेमाल बंद कर दिया और खास लोगों के पास समय ही कहाँ होता है. आठ आठ आंसू रोता मैं अपने वो दिन याद करता हूँ।
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