Thursday, May 14, 2009

ख़ुद ही जी के देखो

ये हमसे पूछो कि क्या जिंदगी है
ख़ुद ही जी के देखो कि क्या जिंदगी है


वो मिटटी में लेटा सा रोता सा बचपन
अभावों में जगता औ सोता सा बचपन
न ममता भरी गोद दादी न नानी
न गुडिया खिलौने न कोई कहानी
कभी सर्दियों में ठिठुरता वो बचपन
कभी धूप की लौ में जलता वो बचपन

अभावों के बचपन में क्या जिंदगी है
ख़ुद ही जी के देखो कि क्या जिंदगी है

वो गलियों वो कूचों में फिरता लड़कपन
फटे चीथडों में वो लिपटा लड़कपन
टूटे घरोंदों में महलों के सपने
समाये हैं संसार आँखों में अपने
हजारों वो जख्मों को सीने की कोशिश
फटेहाल जीवन को जीने की कोशिश

लड़कपन के सपनों में क्या जिंदगी है
ख़ुद ही जी के देखो कि क्या जिंदगी है

नशे में कहीं लडखडाती जवानी
कहीं दूर जीवन से जाती जवानी
न मंजिल न ही हमसफ़र साथ कोई
जो हाथों में ले ले नहीं हाथ कोई
न दुनियाँ से लड़ लड़ के जीने का वादा
न हिम्मत ही दिल में न कोई इरादा

पलायन में ढूंढो कि क्या जिंदगी है
ख़ुद ही जी के देखो कि क्या जिंदगी है


बीमारियों
से जो टूटे बुढापा
कभी हार कर खुद से रूठे बुढापा
न बचपन की यादें न यौवन की बातें
निराशा में डूबे दिन और रातें
कहीं मौत की बस तमन्ना मिलेगी
नयी कोई शायद वो दुनियाँ मिलेगी

घुटते बुढापे में क्या जिंदगी है
ख़ुद ही जी के देखो कि क्या जिंदगी है

अभी तुमने देखा कहाँ जिन्दगी को
नहीं जानकर गम क्या समझो ख़ुशी को
अभी बेबसी को कहाँ तुमने देखा
दुःख की हंसी को कहाँ तुमने देखा
झेला नहीं हलकी मुश्किल को
छोटी सी बातों ने तोडा है दिल को

उन बातों में देखो कि क्या जिंदगी है
अगर समझो शायद बड़ी जिंदगी है
तुम्हारे लिए ही पड़ी जिंदगी है
तुम्हारे लिए ही पड़ी जिंदगी है

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