Thursday, May 14, 2009

दिल से

वो घड़ी बीतकर नहीं आई
लाख वो यादकर नहीं आई
चैन दिन को नहीं मिलता क्यों है
नींद क्यों रातभर नहीं आई

बेचकर जिंदगी के कुछ टुकड़े
दो घड़ी का सुकून लेना था
लुट गई जिंदगी पूरी लेकिन
चाह वो चाह कर नहीं आई

जिंदगी क्या है जैसे परछाई
पास जाओ तो दूर ये भागे
उम्र भर था किया महसूस इसे
हाथ पर एक पल नहीं आई

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