Saturday, October 9, 2010

अमित्रस्य कुतो दुखम

रात का वक्त, अचानक एक फोन आता है, मोबाइल स्क्रीन पर एक जान पहचान वाले व्यक्ति का नाम जिसे मैं अपना दोस्त समझ बैठा था, हालाँकि शायद उसीने मुझे दोस्त की परिभाषा तथा कुछ शर्तें जो दोस्त बनने के लिए जरूरी हैं आदि से अवगत कराया था जिनमें प्रमुख था common interests. मेरे interests उससे क्या किसी से मेल नहीं खाते जाहिर है मेरा कोई दोस्त नहीं है, दिमाग तो जानता है पर दिल है कि मानता नही, बहर हाल फोन उठाने पर पता चला कि उसकी जेब किसी ने काट ली थी जो अपनी जरूरत का सामान यानी धन के अलावा गैर जरूरी चीजें जैसे टिकट भी जो कि पर्स के भीतर था, ले गया. मैं असमंजस में, करूं तो क्या करूं, वो करीब २०० किलोमीटर दूर, दूसरी ट्रेन में उसका रिजर्वेशन था मेरे शहर से पहले वाले स्टेशन से पर बगैर टिकट? वो ट्रेन में चढ़ पायेगा या नहीं, इतना लम्बा रास्ता बिना पैसे के कैसे कटेगा आदि चिन्ताएं मेरे दिमाग में घूम रही थी. मैंने राय दी कि वो मेरे शहर में ही जाए, इसी बहाने मुलाकात भी हो जायेगी और उसके जाने का बन्दोबस्त भी. मैं बीच बीच में फोन करता रहा, खुशकिस्मती से दूसरी ट्रेन जो उसे बीच में से पकड़नी थी काफ़ी लेट थी इस वजह से उसे मिल गयी. वो फिर कैसे गया टिकट का क्या हुआ आदि उसने मुझे दूसरे दिन बताना था जो कि उसने मुझे आज तक नहीं बताया. बस इतनी सी बात आज भी दिल में चुभती है.

मेरा एक और परिचित जो आज छुट्टी जा रहा है दिल्ली के रास्ते, मैंने दिल्ली कुछ पेपर्स भिजवाने थे, जो इतवार तक दिल्ली पहुंचने जरूरी थे कूरियर से सम्भव नहीं था, दो दिन पहले जब मैंने उससे बात की तो उसने कहा वह अपने एक परिचित, जो कि दिल्ली ही जा रहा है और दिल्ली भी सुबह पहुंचगा, के हाथों भिजवा देगा, और मुझे पूरा भरोसा दिलाया कि चिन्ता करने की कोई जरूरत नही है. दूसरे दिन एक तो उसने मुझसे पूछा मैंने इस बावत उससे बात क्यों नहीं की और दूसरा यह बताया कि कि उसका परिचित/मित्र उस ट्रेन से नहीं जा रहा है और उसके पास दिल्ली में वक्त नहीं रहेगा इत्यादि. वक्त तो मैं अपना खराब कर ही चुका था. मैंने उसे बताया कि अब मेरे पास कोई चारा नहीं था सिवा इसके कि मैं उसी के हाथों ही यह भेजूं. हालांकि उसने बताया कि, हो सकता है वह दिल्ली जाये ही नहीं और आगरा से ही ट्रेन बदल ले, या उसके पास नई दिल्ली में वक्त ही ना मिले आदि, पर मेरे पास कोई रास्ता था मैंने कहा जो भी हो चान्स तो मुझे लेना ही पडे़गा, मैंने उससे उसके जाने का वक्त और मैं कब आऊं यह पूछा और यह भी कहा कि मैं उसे बस स्टाप तक छोड़ दूंगा, तो मुझे पौने नौ का वक्त दिया गया. इसी दौरान एक परिचित और सिर्फ़ परिचित दोस्त नहीं, मिल गया जिसे भी दिल्ली जाना था और बिना किसी हील हुज्जत के मेरा काम करने को तैयार हो गया, कागजात इस व्यक्ति को सौंपकर मैंने इसे फोन करने की कोशिश की जो सफल नहीं हो सकी, फिर जैसा कि मैंने commit किया ही था मैं वक्त से पांच मिनट पहले ही उसके घर पहुंच गया, घर में ताला था फोन लग नहीं रहा था, मैं रुका रहा, बीस मिनट बाद फोन लगा, फिर उसने आके अपना सामान उतारा, मुझसे मेरा सामान मांगा, तब तक उसके दोस्त की नई चमचमाती गाड़ी भी गई, मैंने बताया कि सामान मैं भेज चुका हूँ, वो गाड़ी में बैठ के चल दिए, मैं अपनी पुरानी गाड़ी की तरफ़ देखने लगा, वापसी में एक मोड़ पर थोड़ा भटक के, लम्बे रास्ते से घर गया.

बचपन में पढ़ा था "अमित्रस्य कुतो सुखम" पूरे श्लोक का अभिप्राय था, आलसी को विद्या नहीं मिलती, विद्या हो तो धन नहीं, धन नहीं तो मित्र नहीं और मित्र नहीं तो सुख नहीं. आज के दौर में यह तो सही ही लग रहा कि धन से ही मित्र की प्राप्ति होती है. पर मित्र से सुख? शायद उल्टा ज्यादा सच लग रहा है. मित्र के साथ दो चीजें होती हैं या तो आप उसके लिए कुछ करना चाहते हैं या कुछ उम्मीद करते हैं दोनों के हो पाने में दुख तो अवश्य मिल ही जाता है और जिसका मित्र हो वो इस दुख से जरूर वँचित रहता है यानी कि.
"अमित्रस्य कुतो दुखम"